हैरी ब्रूक: उभरता सितारा, क्रिकेट की नई सनसनी
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read moreशाह बानो मामला भारतीय कानूनी इतिहास में एक मील का पत्थर है। यह मामला न केवल एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला के भरण-पोषण के अधिकार से जुड़ा था, बल्कि इसने भारतीय समाज में लैंगिक समानता और धार्मिक कानूनों की व्याख्या पर भी एक गंभीर बहस छेड़ दी थी। आइये, इस ऐतिहासिक मामले के विभिन्न पहलुओं को गहराई से समझते हैं।
शाह बानो इंदौर की एक 62 वर्षीय मुस्लिम महिला थीं। 1978 में, उनके पति, मोहम्मद अहमद खान ने उन्हें तलाक दे दिया। तलाक के बाद, शाह बानो ने अपने पति से गुजारा भत्ता (maintenance) की मांग की, जिसे उन्होंने देने से इनकार कर दिया। उनका तर्क था कि इस्लामी कानून के अनुसार, वे केवल इद्दत (तलाक के बाद की अनिवार्य प्रतीक्षा अवधि) के दौरान ही भरण-पोषण के लिए बाध्य हैं।
शाह बानो ने निचली अदालत में मुकदमा दायर किया, जहाँ उनके पक्ष में फैसला आया। अदालत ने उनके पति को उन्हें हर महीने गुजारा भत्ता देने का आदेश दिया। मोहम्मद अहमद खान ने इस फैसले को उच्च न्यायालय में चुनौती दी, लेकिन उच्च न्यायालय ने भी निचली अदालत के फैसले को बरकरार रखा।
मामला अंततः 1985 में भारत के सर्वोच्च न्यायालय में पहुंचा। सुप्रीम कोर्ट ने शाह बानो के पक्ष में फैसला सुनाया और कहा कि दंड प्रक्रिया संहिता (Code of Criminal Procedure - CrPC) की धारा 125, जो तलाकशुदा महिलाओं को गुजारा भत्ता देने का प्रावधान करती है, सभी नागरिकों पर लागू होती है, चाहे उनका धर्म कुछ भी हो।
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में यह भी कहा कि धार्मिक कानूनों को संविधान के मौलिक अधिकारों के अनुरूप होना चाहिए। अदालत ने यह भी टिप्पणी की कि यह खेदजनक है कि मुस्लिम महिलाओं को भरण-पोषण के मामले में अन्य धर्मों की महिलाओं के समान अधिकार नहीं मिल रहे हैं। शाह बानो मामले ने इस असमानता को उजागर किया।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले का कुछ मुस्लिम संगठनों ने कड़ा विरोध किया। उनका मानना था कि यह फैसला इस्लामी कानून में हस्तक्षेप है। इस विरोध के परिणामस्वरूप, तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने 1986 में मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 (Muslim Women (Protection of Rights on Divorce) Act, 1986) पारित किया।
इस अधिनियम ने CrPC की धारा 125 के दायरे से मुस्लिम महिलाओं को बाहर कर दिया। इसके अनुसार, तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं को केवल इद्दत अवधि तक ही भरण-पोषण का अधिकार था, और उसके बाद उनके रिश्तेदारों या वक्फ बोर्ड को उनकी देखभाल करनी होती थी।
मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 की व्यापक रूप से आलोचना की गई। आलोचकों का तर्क था कि यह अधिनियम मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों को कमजोर करता है और उन्हें अन्य धर्मों की महिलाओं के समान कानूनी सुरक्षा से वंचित करता है। इस अधिनियम को लैंगिक समानता और सामाजिक न्याय के सिद्धांतों के खिलाफ माना गया।
इस अधिनियम के बाद भी, विभिन्न अदालतों ने मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की रक्षा के लिए कई फैसले दिए हैं। उदाहरण के लिए, डैनियल लतीफी मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम की व्याख्या इस प्रकार की कि यह अधिनियम तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं को इद्दत अवधि के बाद भी "उचित और न्यायसंगत" भरण-पोषण प्राप्त करने का अधिकार देता है। शाह बानो मामले के बाद, यह एक महत्वपूर्ण कानूनी विकास था।
शाह बानो मामला भारतीय कानूनी इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ है। इसने न केवल तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों को उजागर किया
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