John Bolton: Unpacking a Controversial Career
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read moreभारतीय इतिहास में, कुछ मामले ऐसे हैं जिन्होंने देश की सामाजिक और राजनीतिक दिशा को हमेशा के लिए बदल दिया। ऐसा ही एक मामला है शाह बानो केस। यह मामला न केवल एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला के गुजारा भत्ते से जुड़ा था, बल्कि इसने धर्म, कानून और लैंगिक समानता के बीच जटिल संबंधों को भी उजागर किया। यह लेख इस ऐतिहासिक मामले की गहराई में जाता है, इसके कारणों, परिणामों और आज भी प्रासंगिकता पर प्रकाश डालता है।
शाह बानो, मध्य प्रदेश के इंदौर की एक 62 वर्षीय मुस्लिम महिला थीं। 1978 में, उनके पति, मोहम्मद अहमद खान ने उन्हें तलाक दे दिया। मुस्लिम पर्सनल लॉ के अनुसार, तलाक के बाद, पति को केवल इद्दत अवधि (लगभग तीन महीने) तक ही पत्नी को गुजारा भत्ता देने की जिम्मेदारी होती है। शाह बानो, जिनके पांच बच्चे थे और जिनके पास आय का कोई स्रोत नहीं था, ने अपने पति से गुजारा भत्ता पाने के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाया।
मामला निचली अदालत से होते हुए उच्च न्यायालय तक पहुंचा, जहाँ शाह बानो के पक्ष में फैसला सुनाया गया। उच्च न्यायालय ने मोहम्मद अहमद खान को शाह बानो को गुजारा भत्ता देने का आदेश दिया। हालांकि, मोहम्मद अहमद खान ने इस फैसले को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी।
1985 में, सर्वोच्च न्यायालय ने शाह बानो के पक्ष में फैसला सुनाया। अदालत ने कहा कि दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 125, जो तलाकशुदा महिलाओं को गुजारा भत्ता प्रदान करने की बात करती है, सभी नागरिकों पर लागू होती है, चाहे उनका धर्म कुछ भी हो। अदालत ने यह भी कहा कि मुस्लिम पर्सनल लॉ CrPC की धारा 125 से ऊपर नहीं है।
इस फैसले ने पूरे देश में एक बहस छेड़ दी। कुछ लोगों ने इसे लैंगिक समानता और धर्मनिरपेक्षता की जीत बताया, जबकि कुछ अन्य ने इसे मुस्लिम पर्सनल लॉ में हस्तक्षेप के रूप में देखा।
शाह बानो मामले में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद, तत्कालीन राजीव गांधी सरकार पर मुस्लिम समुदाय से भारी दबाव आया। मुस्लिम नेताओं और संगठनों ने इस फैसले को मुस्लिम पर्सनल लॉ में हस्तक्षेप बताया और इसे वापस लेने की मांग की।
सरकार ने दबाव में आकर मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 पारित किया। इस अधिनियम ने CrPC की धारा 125 के दायरे से मुस्लिम महिलाओं को बाहर कर दिया और उन्हें गुजारा भत्ता पाने के लिए मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत आवेदन करने के लिए मजबूर किया। इस अधिनियम के अनुसार, तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं को केवल इद्दत अवधि तक ही गुजारा भत्ता मिल सकता था, और उसके बाद उन्हें अपने रिश्तेदारों या वक्फ बोर्ड पर निर्भर रहना पड़ता था। शाह बानो केस इस अधिनियम के कारण विवादास्पद बन गया।
मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 की व्यापक रूप से आलोचना की गई। आलोचकों ने इसे लैंगिक समानता के खिलाफ और मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों का उल्लंघन बताया। उनका तर्क था कि इस अधिनियम ने मुस्लिम महिलाओं को अन्य धर्मों की तलाकशुदा महिलाओं की तुलना में कम अधिकार दिए।
हालांकि, कुछ लोगों ने इस अधिनियम का समर्थन किया। उनका तर्क था कि यह मुस्लिम पर्सनल लॉ की रक्षा करता है और मुस्लिम समुदाय की धार्मिक स्वतंत्रता सुनिश्चित करता है।
शाह बानो केस भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर है। इसने धर्म, कानून और लैंगिक समानता के बीच जटिल संबंधों को उजागर किया और देश में एक व्यापक बहस को जन्म दिया। यह मामला आज भी प्रासंगिक है, क्योंकि यह मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों और मुस्लिम पर्सनल लॉ के सुधार की आवश्यकता पर प्रकाश डालता है।
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