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read moreशाह बानो केस भारतीय कानूनी इतिहास में एक ऐसा मामला है जिसने देश में महिलाओं के अधिकारों और धर्मनिरपेक्षता पर एक लंबी बहस छेड़ दी। यह मामला एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला, शाह बानो से जुड़ा था, जिसे उसके पति ने तलाक दे दिया था और गुजारा भत्ता देने से इनकार कर दिया था। इस मामले ने भारतीय समाज में धार्मिक कानूनों और महिलाओं के अधिकारों के बीच एक जटिल संबंध को उजागर किया। शाह बानो केस, अपने आप में एक मील का पत्थर है, जो आज भी प्रासंगिक है और भारतीय कानूनी और सामाजिक ढांचे को प्रभावित करता है। यह कहानी सिर्फ एक महिला की नहीं, बल्कि उन लाखों महिलाओं की है जो अपने अधिकारों के लिए संघर्ष कर रही हैं।
शाह बानो मध्य प्रदेश के इंदौर शहर की रहने वाली एक मुस्लिम महिला थीं। 1978 में, उनके पति, मोहम्मद अहमद खान ने उन्हें तलाक दे दिया। शाह बानो ने गुजारा भत्ता (maintenance) की मांग करते हुए अदालत का दरवाजा खटखटाया। निचली अदालत ने उनके पक्ष में फैसला सुनाया, लेकिन उनके पति ने उच्च न्यायालय में अपील की। उच्च न्यायालय ने भी निचली अदालत के फैसले को बरकरार रखा। अंततः, मामला भारत के सर्वोच्च न्यायालय में पहुंचा।
यह याद रखना ज़रूरी है कि उस समय, मुस्लिम महिलाओं के लिए गुजारा भत्ता का अधिकार मुस्लिम पर्सनल लॉ द्वारा शासित था। इस कानून के अनुसार, एक मुस्लिम पति को अपनी तलाकशुदा पत्नी को केवल 'इद्दत' अवधि (तलाक के बाद तीन महीने की प्रतीक्षा अवधि) तक ही गुजारा भत्ता देने की आवश्यकता थी। शाह बानो का तर्क था कि उन्हें आपराधिक प्रक्रिया संहिता (Criminal Procedure Code - CrPC) की धारा 125 के तहत गुजारा भत्ता मिलना चाहिए, जो सभी धर्मों की महिलाओं को गुजारा भत्ता का अधिकार प्रदान करता है।
1985 में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने शाह बानो के पक्ष में फैसला सुनाया। अदालत ने कहा कि CrPC की धारा 125 सभी धर्मों की महिलाओं पर लागू होती है, जिसमें मुस्लिम महिलाएं भी शामिल हैं। अदालत ने यह भी कहा कि मुस्लिम पर्सनल लॉ CrPC की धारा 125 का उल्लंघन नहीं कर सकता। यह फैसला एक ऐतिहासिक फैसला था क्योंकि इसने मुस्लिम महिलाओं को भी गुजारा भत्ता का अधिकार प्रदान किया। सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि धर्मनिरपेक्ष कानून धार्मिक कानूनों से ऊपर हैं जब बात महिलाओं के अधिकारों की आती है। यह फैसला एक प्रगतिशील कदम था जो महिलाओं को सामाजिक और आर्थिक रूप से सशक्त बनाने की दिशा में उठाया गया था।
मुझे याद है, उस समय, मेरी दादी इस फैसले के बारे में बहुत उत्साहित थीं। वह हमेशा कहती थीं कि महिलाओं को अपने अधिकारों के लिए लड़ना चाहिए और किसी भी तरह के अन्याय को सहन नहीं करना चाहिए। शाह बानो केस एक ऐसा उदाहरण था जिसने उन्हें यह विश्वास दिलाया कि महिलाएं अपने अधिकारों के लिए लड़ सकती हैं और जीत सकती हैं।
सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का मुस्लिम समुदाय के कुछ वर्गों ने विरोध किया। उनका तर्क था कि यह फैसला मुस्लिम पर्सनल लॉ में हस्तक्षेप है और यह धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों के खिलाफ है। विरोध के जवाब में, भारत सरकार ने 1986 में मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 (Muslim Women (Protection of Rights on Divorce) Act, 1986) पारित किया। इस अधिनियम ने सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को पलट दिया और मुस्लिम महिलाओं को CrPC की धारा 125 के तहत गुजारा भत्ता पाने के अधिकार से वंचित कर दिया।
इस अधिनियम के अनुसार, एक मुस्लिम पति को अपनी तलाकशुदा पत्नी को केवल इद्दत अवधि तक ही गुजारा भत्ता देने की आवश्यकता थी। इसके बाद, गुजारा भत्ता की जिम्मेदारी उसके रिश्तेदारों या वक्फ बोर्ड पर आ जाती थी। इस अधिनियम को व्यापक रूप से महिलाओं के अधिकारों के खिलाफ माना गया और इसकी कड़ी आलोचना हुई।
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