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read moreशाह बानो केस भारतीय कानूनी इतिहास में एक मील का पत्थर है। यह मामला न केवल मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों से जुड़ा है, बल्कि इसने भारतीय समाज में धर्म, कानून और लैंगिक समानता जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर भी बहस छेड़ दी। यह कहानी है शाह बानो नामक एक 62 वर्षीय मुस्लिम महिला की, जिसे उसके पति ने तलाक दे दिया था और गुजारा भत्ता देने से इनकार कर दिया था। इस मामले ने पूरे देश को हिलाकर रख दिया और आज भी प्रासंगिक बना हुआ है। शाह बानो केस कानूनी लड़ाई और उसके बाद के राजनीतिक और सामाजिक परिणामों की एक जटिल कहानी है।
शाह बानो मध्य प्रदेश के इंदौर शहर की रहने वाली थीं। 1932 में उनका विवाह मोहम्मद अहमद खान से हुआ था, जो एक वकील थे। शादी के कई सालों बाद, उनके रिश्ते में खटास आने लगी। 1978 में, खान ने शाह बानो को तलाक दे दिया और गुजारा भत्ता देने से इनकार कर दिया। शाह बानो, जिनके पांच बच्चे थे, आर्थिक रूप से बेसहारा हो गईं। उन्होंने अपने पति से गुजारा भत्ता पाने के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाया।
शाह बानो ने निचली अदालत में याचिका दायर की, जिसमें उन्होंने अपने पति से दंड प्रक्रिया संहिता (Criminal Procedure Code - CrPC) की धारा 125 के तहत गुजारा भत्ता मांगा। निचली अदालत ने उनके पक्ष में फैसला सुनाया और खान को उन्हें प्रतिमाह 25 रुपये का गुजारा भत्ता देने का आदेश दिया। हालांकि, शाह बानो इस फैसले से संतुष्ट नहीं थीं, क्योंकि यह राशि उनकी जरूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त नहीं थी। उन्होंने उच्च न्यायालय में अपील की।
उच्च न्यायालय ने निचली अदालत के फैसले को बरकरार रखा, लेकिन गुजारा भत्ते की राशि को बढ़ाकर 179.20 रुपये प्रतिमाह कर दिया। खान ने इस फैसले को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी। सर्वोच्च न्यायालय में यह मामला 'मोहम्मद अहमद खान बनाम शाह बानो बेगम' के नाम से जाना गया।
23 अप्रैल, 1985 को सर्वोच्च न्यायालय ने शाह बानो के पक्ष में ऐतिहासिक फैसला सुनाया। न्यायालय ने कहा कि CrPC की धारा 125 सभी नागरिकों पर लागू होती है, चाहे उनका धर्म कुछ भी हो। न्यायालय ने यह भी कहा कि मुस्लिम महिलाओं को भी तलाक के बाद गुजारा भत्ता पाने का अधिकार है। इस फैसले ने मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों को मजबूत किया और उन्हें सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा प्रदान की। शाह बानो केस में सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला भारतीय न्यायपालिका के इतिहास में एक महत्वपूर्ण क्षण था।
सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद देश में एक बड़ा विवाद खड़ा हो गया। कुछ मुस्लिम संगठनों ने इस फैसले का विरोध किया, उनका तर्क था कि यह फैसला मुस्लिम पर्सनल लॉ में हस्तक्षेप है। उन्होंने दावा किया कि मुस्लिम पर्सनल लॉ के अनुसार, एक मुस्लिम पति को केवल 'इद्दत' (तलाक के बाद तीन महीने की अवधि) तक ही अपनी पत्नी को गुजारा भत्ता देना होता है।
विवाद को देखते हुए, तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने 1986 में 'मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम' पारित किया। इस अधिनियम ने सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को पलट दिया और मुस्लिम महिलाओं को गुजारा भत्ता पाने के अधिकार को सीमित कर दिया। इस अधिनियम के अनुसार, एक मुस्लिम महिला को केवल इद्दत की अवधि तक ही अपने पति से गुजारा भत्ता मिल सकता था। इसके बाद, गुजारा भत्ते की जिम्मेदारी उसके रिश्तेदारों या वक्फ बोर्ड पर आ जाती थी।
1986 के अधिनियम की व्यापक रूप से आलोचना की गई। आलोचकों का कहना था कि यह अधिनियम मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों का उल्लंघन करता है और उन्हें सामाजिक और आर्थिक रूप से कमजोर बनाता है। कई लोगों ने इस अधिनियम को राजनीतिक मजबूरी बताया, क्योंकि सरकार मुस्लिम समुदाय को खुश करने
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