विजय रुपाणी: गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री का सफर
विजय रुपाणी, भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के एक प्रमुख नेता, गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में अपनी भूमिका के लिए जाने जाते हैं। उनका राजनीतिक करियर जमीन...
read moreभारतीय इतिहास में कुछ मामले ऐसे हैं जिन्होंने सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य को गहराई से प्रभावित किया, और शाह बानो मामला उनमें से एक है। यह मामला, जो 1985 में सामने आया, न केवल एक व्यक्तिगत कानूनी विवाद था, बल्कि इसने धर्म, कानून, और महिलाओं के अधिकारों के बीच एक जटिल बहस को जन्म दिया। इस लेख में, हम शाह बानो मामले की गहराई में उतरेंगे, इसके ऐतिहासिक संदर्भ को समझेंगे, और इसके दूरगामी परिणामों का विश्लेषण करेंगे।
शाह बानो, मध्य प्रदेश के इंदौर की एक 62 वर्षीय मुस्लिम महिला थीं। 1978 में, उनके पति, मोहम्मद अहमद खान ने उन्हें तलाक दे दिया और गुजारा भत्ता देने से इनकार कर दिया। भारतीय दंड संहिता की धारा 125 के तहत, शाह बानो ने अपने पति से गुजारा भत्ता की मांग करते हुए अदालत का दरवाजा खटखटाया। निचली अदालत और उच्च न्यायालय दोनों ने शाह बानो के पक्ष में फैसला सुनाया, जिससे उनके पति को उन्हें गुजारा भत्ता देने का आदेश दिया गया।
हालांकि, मोहम्मद अहमद खान ने इस फैसले को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी। उनका तर्क था कि मुस्लिम कानून के तहत, तलाक के बाद एक मुस्लिम महिला को केवल इद्दत अवधि (तलाक के बाद लगभग तीन महीने की अवधि) तक ही गुजारा भत्ता पाने का अधिकार है।
1985 में, सर्वोच्च न्यायालय ने शाह बानो के पक्ष में फैसला सुनाया। अदालत ने कहा कि दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 सभी नागरिकों पर लागू होती है, चाहे उनका धर्म कुछ भी हो। अदालत ने यह भी कहा कि मुस्लिम कानून में इद्दत अवधि के बाद गुजारा भत्ता देने का कोई प्रावधान नहीं है, यह संविधान के अनुच्छेद 14 (कानून के समक्ष समानता) और अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) का उल्लंघन है।
यह फैसला अपने आप में एक ऐतिहासिक फैसला था, जो मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की रक्षा करता था। लेकिन, इस फैसले के बाद जो हुआ, उसने भारतीय राजनीति और समाज में एक भूचाल ला दिया।
सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद, भारत में एक तीखी बहस छिड़ गई। कुछ लोगों ने इस फैसले का स्वागत किया और इसे मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की जीत बताया। वहीं, कुछ मुस्लिम संगठनों और नेताओं ने इस फैसले का विरोध किया और इसे मुस्लिम कानून में हस्तक्षेप बताया।
तत्कालीन राजीव गांधी सरकार पर इस फैसले को पलटने का दबाव बढ़ने लगा। 1986 में, सरकार ने मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम पारित किया। इस अधिनियम ने सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को प्रभावी रूप से पलट दिया और यह प्रावधान किया कि तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं को केवल इद्दत अवधि तक ही गुजारा भत्ता मिलेगा। इसके बाद, गुजारा भत्ता का दायित्व उनके रिश्तेदारों या वक्फ बोर्ड पर होगा।
इस अधिनियम को व्यापक रूप से मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों के लिए एक झटका माना गया। कई लोगों ने सरकार पर मुस्लिम कट्टरपंथियों के दबाव में झुकने और मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की बलि देने का आरोप लगाया।
शाह बानो मामले का भारतीय राजनीति और समाज पर गहरा प्रभाव पड़ा। इस मामले ने धर्म, कानून, और महिलाओं के अधिकारों के बीच एक जटिल बहस को जन्म दिया। इसने भारतीय समाज में धर्मनिरपेक्षता और बहुसंस्कृतिवाद के मुद्दों को भी उजागर किया।
इस मामले ने मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों के बारे में जागरूकता बढ़ाने में मदद की। इसने मुस्लिम महिलाओं को अपने अधिकारों के लिए लड़ने के लिए प्रेरित किया। शाह बानो मामले के बाद, कई मुस्लिम महिलाओं ने तलाक और गुजारा भत्ता से संबंधित मामलों में अदालत का दरवाजा खटखटाया।
इस मामले ने भारतीय राजनीति में ध्रुवीकरण को भी बढ़ाया। इसने हिंदू राष्ट्रवादी ताकतों को मजबूत किया, जिन्होंने मुस्लिम तुष्टीकरण का आरोप लगाया। इस मामले ने भारतीय जनता पार्टी (
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