देओबंद: इतिहास, शिक्षा और संस्कृति की गहराई
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read moreउत्तराखंड की संस्कृति में कई अनमोल रत्न छिपे हुए हैं, और उनमें से एक है इगास बग्वाल। यह पर्व न केवल एक त्योहार है, बल्कि यह हमारी जड़ों से जुड़ाव का प्रतीक है, हमारी परंपराओं का जीवंत उदाहरण है। दीवाली के ठीक 11 दिन बाद मनाया जाने वाला यह पर्व, उत्तराखंड के लोगों के लिए एक विशेष महत्व रखता है। यह केवल रोशनी का त्योहार नहीं है, बल्कि यह प्रकृति के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने, अपने पूर्वजों को याद करने और समुदाय के साथ मिलकर खुशियां मनाने का अवसर है।
बचपन में, मुझे याद है, इगास बग्वाल की तैयारियां कई दिन पहले से शुरू हो जाती थीं। घर की लिपाई-पुताई होती, नए पकवान बनते, और पूरा गांव एक उत्सव के रंग में रंग जाता था। आज भी, जब मैं अपने गांव जाता हूं, तो मुझे वही उत्साह और उमंग देखने को मिलती है।
इगास बग्वाल, जिसे बूढ़ी दीवाली के नाम से भी जाना जाता है, कार्तिक मास की शुक्ल एकादशी को मनाया जाता है। यह पर्व दीपावली के समान ही है, लेकिन इसकी अपनी अनूठी परंपराएं और रीति-रिवाज हैं। माना जाता है कि भगवान राम के 14 वर्ष के वनवास के बाद अयोध्या लौटने की खुशी में दीपावली मनाई जाती है, जबकि इगास बग्वाल को पहाड़ों में पांडवों की वापसी के प्रतीक के रूप में मनाया जाता है। एक किंवदंती के अनुसार, जब पांडव 12 वर्ष के वनवास और 1 वर्ष के अज्ञातवास के बाद लौटे, तो उस समय गढ़वाल के लोगों को इसकी जानकारी देर से मिली। इसलिए, उन्होंने दीपावली के 11 दिन बाद यह पर्व मनाया।
इस दिन, घरों को मिट्टी के दीयों से सजाया जाता है, जिन्हें भैलो कहा जाता है। भैलो एक प्रकार की मशाल होती है, जिसे चीड़ की लकड़ी और घास से बनाया जाता है। इन्हें जलाकर घुमाया जाता है और फिर गांव के चारों ओर फेंक दिया जाता है। यह माना जाता है कि भैलो जलाने से नकारात्मक ऊर्जा दूर होती है और सकारात्मकता का संचार होता है।
इगास बग्वाल के दिन कई तरह की परंपराएं और रीति-रिवाज निभाए जाते हैं। इनमें से कुछ प्रमुख परंपराएं इस प्रकार हैं:
यह भी ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि igas bagwal में स्थानीय लोक संगीत और नृत्य का भी महत्वपूर्ण स्थान है। यह पर्व सामुदायिक एकता और भाईचारे को बढ़ावा देता है।
आज के आधुनिक युग में, जहां लोग अपनी जड़ों से दूर होते जा रहे हैं, इगास बग्वाल जैसे पर्व हमें अपनी संस्कृति और परंपराओं से जोड़े रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। यह पर्व हमें याद दिलाता है कि हमें अपनी पहचान को नहीं भूलना चाहिए और अपनी संस्कृति को अगली पीढ़ी तक पहुंचाना चाहिए।
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