UKSSSC: परीक्षा, परिणाम और नवीनतम अपडेट
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read moreआंग सान सू की, एक ऐसा नाम जो म्यांमार (बर्मा) में लोकतंत्र के लिए दशकों के संघर्ष का पर्याय बन गया है। एक नोबेल शांति पुरस्कार विजेता और दुनिया भर में मानवाधिकारों की एक सशक्त आवाज, उनकी कहानी प्रेरणादायक और दुखद दोनों है। उनकी यात्रा, उनके सिद्धांत, और म्यांमार पर उनका प्रभाव, ये सभी मिलकर एक जटिल और महत्वपूर्ण चित्र बनाते हैं, जिसे समझना आवश्यक है।
सू की का जन्म 1945 में रंगून (अब यांगून) में हुआ था। उनके पिता, आंग सान, बर्मा की स्वतंत्रता के नायक थे, जिनकी 1947 में हत्या कर दी गई थी। पिता की विरासत का सू की पर गहरा प्रभाव पड़ा। उन्होंने ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान का अध्ययन किया, जहां उनकी मुलाकात अपने भावी पति, माइकल एरिस से हुई। उन्होंने संयुक्त राष्ट्र में भी काम किया और एक गृहिणी के रूप में जीवन बिताया, लेकिन नियति ने उनके लिए कुछ और ही सोच रखा था।
1988 में, सू की अपनी बीमार मां की देखभाल के लिए बर्मा लौटीं। उसी समय, देश सैन्य शासन के खिलाफ एक बड़े पैमाने पर लोकतंत्र समर्थक आंदोलन से जूझ रहा था। सू की, अपने पिता की विरासत और लोकतंत्र के प्रति अपनी प्रतिबद्धता से प्रेरित होकर, आंदोलन में शामिल हो गईं। उनकी वाक्पटुता, साहस और दृढ़ संकल्प ने उन्हें जल्दी ही लोकतंत्र समर्थक आंदोलन का चेहरा बना दिया।
1990 में, सू की की पार्टी, नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी (एनएलडी) ने भारी बहुमत से चुनाव जीता। हालांकि, सैन्य सरकार ने नतीजों को मानने से इनकार कर दिया और सू की को नजरबंद कर दिया। उन्होंने अगले 21 वर्षों में से 15 साल नजरबंदी में बिताए। इस दौरान, उन्हें 1991 में नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया, जिसने उन्हें दुनिया भर में और भी अधिक पहचान दिलाई। आंग सान सू की के संघर्ष ने अंतर्राष्ट्रीय समुदाय का ध्यान आकर्षित किया और म्यांमार पर सैन्य सरकार पर दबाव बनाने में मदद की।
सू की की नजरबंदी के दौरान, उन्हें अपने परिवार से अलग रहना पड़ा। उनके पति, माइकल एरिस को कैंसर हो गया था, और बर्मा की सैन्य सरकार ने उन्हें सू की से मिलने के लिए वीजा देने से इनकार कर दिया। एरिस 1999 में मर गए, और सू की को अंतिम संस्कार में शामिल होने के लिए बर्मा लौटने की अनुमति नहीं दी गई। यह एक व्यक्तिगत त्रासदी थी जिसने सू की के दृढ़ संकल्प को और मजबूत किया।
2010 में, सू की को आखिरकार नजरबंदी से रिहा कर दिया गया। उनकी रिहाई को म्यांमार में लोकतंत्र की ओर एक महत्वपूर्ण कदम के रूप में देखा गया। उन्होंने एनएलडी का नेतृत्व करना जारी रखा और 2012 में संसद सदस्य चुनी गईं। 2015 में, एनएलडी ने फिर से भारी बहुमत से चुनाव जीता, और सू की स्टेट काउंसलर बनीं, जो म्यांमार में वास्तविक नेता का पद है।
हालांकि, सू की का कार्यकाल विवादों से भरा रहा। रोहिंग्या मुसलमानों के खिलाफ हिंसा के मुद्दे पर उनकी चुप्पी के लिए उनकी व्यापक रूप से आलोचना की गई। रोहिंग्या म्यांमार में एक अल्पसंख्यक जातीय समूह हैं, जिन्हें दशकों से भेदभाव और उत्पीड़न का सामना करना पड़ा है। 2017 में, म्यांमार की सेना ने रोहिंग्या के खिलाफ एक क्रूर अभियान चलाया, जिसके कारण सैकड़ों हजारों रोहिंग्या बांग्लादेश भाग गए। अंतर्राष्ट्रीय समुदाय ने सू की पर रोहिंग्या के खिलाफ हिंसा को रोकने के लिए पर्याप्त प्रयास नहीं करने का आरोप लगाया।
फरवरी 2021 में, म्यांमार की सेना ने सू की की सरकार का तख्ता पलट कर दिया और उन्हें फिर से गिरफ्तार कर लिया। तख्तापलट ने म्यांमार में लोकतंत्र की दिशा में हुई प्रगति को उलट दिया और देश को एक बार फिर सैन्य शासन के अधीन कर दिया। सू की पर कई आरोप लगाए गए हैं, जिनमें भ्रष्टाचार और राजद्रोह शामिल हैं। उन्हें कई मामलों में दोषी ठहराया गया है और लंबी जेल की सजा सुनाई गई है।
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